अपनों के इस सफर मे
सपनों के उस शहर मे
आरजू की कीमत पर
खुद को बेवजह ही लूटा
कर
क्या खोया और क्या पाया
इसका हिसाब अब कौन करे
अब कौन करे इसका हिसाब
की अपनों के मिलने-बिछड़ने मे
उसके प्यादे सी इस जिंदगी मे
उसे मौत के कितने करीब
लाकर खड़ा किया हैं
और मौत हैं
की मुस्कुराकर मासूमियत से
मानो इंतज़ार कर रही हो
जैसे उसे भी मालूम हैं की
इस बेवजह सी कोशिश का
अंतिम वाला अंत वो ही हैं
और इस प्यादे सी जिंदगी
यूं ही खामखा बेवजह
साँसों के दरमियान बनी हुई हैं
‘अभिषेक’
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