उस गली के एक घर मे रहता था कोई
उस उम्र का एक मशहूर शौक था कोई
उन गरम लफ्जों को यूं सँजोया हैं अब तक
जैसे ठंड की सुबह मे धूप सेकता हैं कोई
भागती जिंदगी का एक रुका लम्हा हैं कोई
भीगती आँखों का बहा हुआ आँसू हैं कोई
गुजरे हुए उसके लम्हों को छुपाया हैं दिल मे
जैसे साँसों को महफूज रखता हैं कोई
उसके एहसास के आस मे जिंदा हैं कोई
जैसे किसी वादे का कर्ज उतारता हैं कोई
अब तो सफर कट गया सफर मे ऐसे
जैसे साहिलो पर पहुच कर पता पूछता हैं कोई
अब जिंदगी और उस शौक मे जीता हैं कोई
जैसे किसी की दी हुई अमानत संभालता हैं कोई
उसको महसूस करने की वो उम्र अभी भी हैं मुझ मे
जैसे दी हुई निशानी उंगलियों मे पहनता हैं कोई
‘अभिषेक’