Sunday, October 30, 2022

कर्म-युद्ध

राष्ट्र की गुहार को

सिंह की दहाड़ को

न्याय की पुकार पे

आज तू ये जान ले

युद्ध को स्वीकार ले

 

की कर्म तेरे वश मे हैं

धर्म तेरे अक्स मे हैं

धनुष उठा के आज तू 

युद्ध को स्वीकार ले

 

जीत वश मे हैं नहीं

हार स्वीकार्य हैं नहीं

कर्म तेरी शक्ति हैं

धर्म तेरी भक्ति हैं

आज तू ये जान ले

युद्ध को स्वीकार ले

 

कोई नही सगा तेरा

न हैं कोई अपना जहा  

बस तू ही तू हैं यहा  

साहसों की डोर पे

कर्म के वाण को

पार्थ तू निकाल दे

कि युद्ध तेरे वश मे हैं

युद्ध को स्वीकार ले

 

ये युद्ध धर्म ही का हैं

भोग के लिए न लड़

युद्ध ये कर्म ही से हैं

पार्थ तू आगे निकल

हार जीत मे नहीं

कर्म मे हैं शांति

आज तू ये जान ले

और युद्ध को स्वीकार ले

 

शांति कोई विकल्प नहीं

युद्ध कोई हल नहीं

धर्म की रक्षा के लिए

आज तू बस ये कर्म कर

की जन्म क्यू हुआ तेरा

आज तू ये जान ले

साहसों के उन्माद पे

युद्ध को स्वीकार ले

 

तू हैं सदा से यहा

आज तू ये जान ले

शरीर नहीं ये आत्मा

ये ही अखिल विश्वात्मा

काट सके न शस्त्र जिसे

जला सके न आग जिसे

वायु जल से हैं परे

तो मृत्य भय क्यू हैं तुझे

तू ही हैं वो अमरात्मा

तीर को तू भेद ले

युद्ध को स्वीकार ले

 

जीत मैं हैं यश तेरा

हार मे हैं स्वर्ग तेरा

कर्म ही हैं स्वर्ण तेरा

कर्म-फल को भूल के

धर्म के लिए तू आज

बंधनों को तोड़ पार्थ

आज तू ये जान ले  

युद्ध को स्वीकार ले

 

जब धर्म का नाश हो

अधर्म का विकास हो

तो कृष्ण के रूप मे

मैं हूँ आज यहा खड़ा

जहा न कोई मुझसे बड़ा

मैं आज जीत लाऊँगा

धर्म के विनाश को

अधर्म के प्रवास को

पार्थ जीत जाऊंगा

मैं कर्म के विश्वास को

आज तू ये जान ले  

युद्ध को स्वीकार ले

 

मैं ही मैं तुझ मे हूँ

इसमे हूँ और उसमे हूँ

आज तू ये जान ले

कुछ नहीं मेरे परे

की करने योग्य कुछ नहीं

मैं हूँ अखिल परमात्मा  

फिर भी कर्म को कीये रहा

पांचजन्य बजा रहा

मैं ये तुझे बता रहा

मृत्यु-भय के पार जा

गाँडीव उठा के आज

कर्म-सिंधु मे डूब जा

आज तू ये जान ले  

युद्ध को स्वीकार ले

Monday, October 24, 2022

ज्वार

 उठ रहा हैं ज्वार फिर क्यूँ के चेतना के पार से

जल रहा हैं आज तन क्यों स्वांस के प्रहार से

 

सुलग उठा हैं आज मन क्यों प्रज्ञा के प्रतिकार से

आ रही हैं आज क्यों फिर, ये रौशनी अंधकार से

 

युवा बना हैं आज फिर उम्र के ढलान पे

धधक उठी हैं आग फिर पानी के प्रवाह पे

 

रक्त हुआ हैं चाप फिर शोषितो के अन्याय पे

रोको ना मुझे कोई, अब क्रांति हैं उफान पे

 

मार्ग तू कर प्रसस्त, आदर्श के स्वभाव से 

मुक्त हो जा आज तू , शासको  के उदभाव से

 

मृत्यु-भय को रोक दे तू, वीरता के उन्माद से

युद्ध को स्वीकार तू, अब स्व-साहसिक प्रयास से

 

बन्धनों को तोड़ दे तू, अब साहसो के प्रवाह से

मुक्त हुआ हैं आज तु, जो प्रलय के प्रभाव से


आरज़ू

 हर आरज़ू एक आह में बदल गयी

हर चाह मेरी क्षितिज पे बिखर गयी

जिन्दगी यूँ तो चलती ही रही मेरी

पर मंजिले मुझसे कब का बिछड गयी

 

अब न जीने की वो चाह ही हैं

और न ही मरने की वो आरज़ू

हैं तो बस ख़ामोशी का वो बवंडर

जो लिए फिरता हैं मुझे कफन की तरह

और भटकता हूँ मैं बेसबर वो बेखबर

 

जिन्दगी का फलसफा कुछ ना मिला

कुछ भी न मिला, तो क्या

गम नहीं हैं इसका फिर भी

क्यूंकि सुना हैं मैंने कही की

साँसों के चलने को ही जिन्दगी नहीं कहते

 

अगर कोई शिकवा हो तुझसे

ए मेरी काफ़िर जिन्दगी

तू ही बता क्या छोड़ दूं

जीने के इस गुबार को

और मरने के इस खुमार को

 

ए मेरे खुदा तू ही बता दे

क्या लौट कर वो जज्बा

फिर से आएगा

जब मैं किसी एक लम्हे की

नयी चादर को ओड़कर

जिन्दगी की खुशनुमा गलियों में

हर रोज़ नयी सुबह को फिर से

जी सकूंगा, कुछ आरजू कर सकूंगा

 

एहसास

 धुप की कड़ी तपिश में

वो तेरा आना

हल्के से कुछ कह के

फिर से गुम हो जाना

याद आती हैं तन्हाई में

मेरी वर्षो की आराधना

तुम ही तो हो

हाँ तुम ही तो हो मेरी साधना


तेरा कुछ नरमी से कहना

और कह के फिर मुझे

एहसासों की महफ़िल में

यूँ तन्हा छोड़ जाना

बा-खुदा जन्नत नहीं तो

और क्या हैं

यूँ रेशमी जज्बातों को

फिर से छेड़ जाती हो

मेरी साधना मुझे

हर पल क्यूँ याद आती हो


 


"अभिषेक"

क्यूँ

 मेरी भीगी हुई आवारा चाहतो के 


आखिरी मुकाम तुझ में ही सिमट के


आ गए क्यूँ


मेरे जलते हुए अरमानो को


मेरी साँसों के गर्म एहसासों को


तुम छु गए क्यूँ


 मेरी बेजान सी पड़ी जिंदगी


मेरी वीरान सी हुई त्रिश्नगी


तुझ में ही लिपट गए क्यूँ


 क्यों हुआ की वो अनजान सा दर्द


मेरे अतीत में ही कही खो गया


और रहा गया तो बस तुम्हारा


वो अक्स जिसे मैं जीता हूँ


रोज खुद में ही कही


संजोता हूँ खुद में ही कही


क्यों हुआ ये


क्यों हुआ ये की तुम आये


और फिर ना रहा कुछ आने को,


और ना ही रहा कुछ पाने को


बस रह गया हैं तो तुम ही तुम


और क्यूँ मैं खुद में ही खो गया हूँ


अब न रही वो मंजिलो की वो प्यास


और न ही रही कुछ पाने की वो आस


क्यूँ की तुम में ही हैं वो सब


जिसकी मैं करता था तलाश


Thursday, October 6, 2022

मेरी साधना

 मेरीआरज़ू के मकबरे से

निकलीदुवाओ की तामिल हो तुम
मेरीसूनी पड़ी जिंदगी की
आहोका सिला हो तुम


मेरीभटकती हुई वीरान जिंदगी
कीपुकार का अंदाज़-ए- बयां हो तुम
तुमही हो मेरी आखिरी मंजिल
जीनेकी वजह भी अब तुम ही हो


हाँतुम ही तो हो पहुंचकर जहा
कुछऔर नहीं पाना चाहता
जीनाचाहता हूँ और तुम्ही पे
फिरखत्म भी होना चाहता हूँ


मेरीगुमनाम साँसों की
भटकतीआरज़ू हो तुम
हाँतुम ही तो हो
मेरीवर्षो की आराधना
हाँतुम ही तो हो मेरी साधना


"अभिषेक"


जीत जाता हूँ

हार हैं जीत हैं

जिंदगी भी क्या अजीब हैं

हारता हूँ, कभी जीत जाता हूँ l

वक्त की बिसात पे यूँ खूब ही

गिर के उठ जाता हूँ


ये आरजू हैं

एक आस हैं

जीने की प्यास हैं

मौत से मिल कर के

हार के भी जीत जाता हूँ l

तूने हारने को और जीतने को

जिंदगी दिया क्या हैं

मिट गयी सब ख्वाहिशे

मिट कर भी हुआ क्या हैं

जीने की कश्मकश ने

प्यादा बनाया हैं

जो पिट कर के भी

जीत जाता हैं l

रात के पथ में

यूँ गुजरे लम्हों को

एक प्यास ने संजोया हैं

जिन्दा हूँ इसलिए

जिंदगी को जीत जाता हूँ l

जिंदगी तू ख्वाब हैं

आरजू हैं या एक त्रिश्नगी

खामखा जीने की एक वजह हैं

या अधूरे अरमानों की

कभी न रुकने वाली

एक कड़ी हैं

या खुद मुझसे लड़ने वाली

एक अन सुलझी पहेली हैं

जो खुद मुझे से ही

निकलकर मुझमे ख़त्म हो जाती हैं

जिंदगी तू भी खुब हैं

मुझसे हार कर जीत जाती हैं l


मुझे मोहरा बना कर

चाल चल जाती हैं

जिंदगी तू भी नित नए

नए रास्ते दिखा के जाती हैं

रुकता हूँ कहीं

कभी पहुच जाता हूँ

वक्त की साजिशो से

फिर भी ए जिंदगी

जीत जाता हूँ l

यादें

जज्बातों का वो सैलाब जो कभी मुझमे मुझ तक था

वो पिछली बारिश में कुछ धुल सा गया हैं

जिंदगी कुछ इस तरह गुजर रही हैं कि

न दोपहर होती हैं और न अब शाम होती हैं I


आरजू का वो बवंडर जो मुझमे तुझ तक था

वो मेरे आंसूओं में कुछ घुल सा गया हैं

मोहरों की खाली डिब्बो सी हो गयी हैं ये जुस्तजू

न कोई चाल चलता हैं न कोई बाजी होती हैं I

बारिश में मेरा गुनगुनाना जो मुझ में कल तक था

वो आज ग़में जिंदगी में कही खो सा गया हैं

और तन्हाई में अब इस क़दर तन्हा हूँ कि

न कोई हार होती हैं न कोई जीत होती हैं I

गुजरे हुये कल में छुपा एक चेहरा जो तुझ तक था

आज कही समय में धुंधला सा पड़ गया हैं

और वो गए छोड़कर इस हाले मोहब्बत में ऐसे कि

न कोई अब याद करता हैं न कोई अब याद आता हैं I

-अभिषेक

कुछ कहना चाहता हूँ

कुछ कहना चाहता हूँ

उस पुरानी किताब के उस पन्ने को

फिर से पढ़ना चाहता हूँ


पन्ने बदले तेरा शहर छोड़ा

शौक-ए आरजू भी बदल कर देख लिया

पर ना भुला तो वो एहसास

जो आज भी उसी किताब के

एक पन्ने में सजो के रखा हैं


मुकम्मल जिंदगी हैं कि नहीं

ये सांसे तो तय नहीं करती क्यूंकि

जीना सिर्फ पैसो का दीदार ही तो नहीं

और जब दीदार की बात निकली ही हैं

तब उस पन्ने की याद लाजमी ही तो हैं

तुम थी वो एहसास भी था

वो शौक-ए नजर भी थी

जो तुम पे ही आ के रुक जाती थी

आज उन्ही लम्हों को

एक पन्ने में सजो के रखा हैं

और जब लम्हे किसी दिल में संजोये जाये

तब तुम्हारा शुकून-ए-एहसास लाजमी ही तो हैं

-अभिषेक