हर आरज़ू एक आह में बदल गयी
हर चाह मेरी क्षितिज पे बिखर गयी
जिन्दगी यूँ तो चलती ही रही मेरी
पर मंजिले मुझसे कब का बिछड गयी
अब न जीने की वो चाह ही हैं
और न ही मरने की वो आरज़ू
हैं तो बस ख़ामोशी का वो बवंडर
जो लिए फिरता हैं मुझे कफन की तरह
और भटकता हूँ मैं बेसबर वो बेखबर
जिन्दगी का फलसफा कुछ ना मिला
कुछ भी न मिला, तो क्या
गम नहीं हैं इसका फिर भी
क्यूंकि सुना हैं मैंने कही की
साँसों के चलने को ही जिन्दगी नहीं कहते
अगर कोई शिकवा हो तुझसे
ए मेरी काफ़िर जिन्दगी
तू ही बता क्या छोड़ दूं
जीने के इस गुबार को
और मरने के इस खुमार को
ए मेरे खुदा तू ही बता दे
क्या लौट कर वो जज्बा
फिर से आएगा
जब मैं किसी एक लम्हे की
नयी चादर को ओड़कर
जिन्दगी की खुशनुमा गलियों में
हर रोज़ नयी सुबह को फिर से
जी सकूंगा, कुछ आरजू कर सकूंगा
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