कुछ कहना चाहता हूँ
उस पुरानी किताब के उस पन्ने को
फिर से पढ़ना चाहता हूँ
पन्ने बदले तेरा शहर छोड़ा
शौक-ए आरजू भी बदल कर देख लिया
पर ना भुला तो वो एहसास
जो आज भी उसी किताब के
एक पन्ने में सजो के रखा हैं
मुकम्मल जिंदगी हैं कि नहीं
ये सांसे तो तय नहीं करती क्यूंकि
जीना सिर्फ पैसो का दीदार ही तो नहीं
और जब दीदार की बात निकली ही हैं
तब उस पन्ने की याद लाजमी ही तो हैं
तुम थी वो एहसास भी था
वो शौक-ए नजर भी थी
जो तुम पे ही आ के रुक जाती थी
आज उन्ही लम्हों को
एक पन्ने में सजो के रखा हैं
और जब लम्हे किसी दिल में संजोये जाये
तब तुम्हारा शुकून-ए-एहसास लाजमी ही तो हैं
-अभिषेक
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